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रविवार, सितंबर 05, 2010

एक अंतहीन यात्रा.....


बहुत पुरानी चीनी कहावत है, "दस हज़ार किताबों को पढने से बेहतर , दस हज़ार मील की यात्रा करना है "I

                                                             रात के 10 :30 हो चुके है और मै अपनी खिड़की में बैठा , दूर-सुदूर तक फैले हुए खेतों को देख रहा हूँ...बाहर घुप्प अँधेरा है...और शायद भीतर भी...आकाश में काले बादल छाए हुए हैं...हवा तेज़ और ठंडी मालूम पड़ती है...और इस घुप्प अँधेरे के बीच रह - रह कर जब बिजली चमकती है तो दूर तक खेतों के निशान दिख जाते हैं.....

                                                                 खेत की फसलें काटी जा चुकी हैं और परती ज़मीन, किसी विधवा के सूनी मांगों की तरह उजाड़ लग रही है..... सुनसान खेतों में खड़े विशालकाय पेड़ों के झुंड , बांसों के झुरमुट , किसी मौनव्रत सन्यासी की तरह चीर मुद्रा में लट बिखराए हुए पीछे की ऑर भाग रहे हैं ...जैसे, किसी अघोषित यातना की सज़ा मिली हों उन्हें, ताउम्र भागते - भटकते रहने की सजा... !!

                                                                 रेल की रफ़्तार धीमी हो रही है...कुछ यात्री ' कम्पार्टमेंट ' में  इधर - उधर टहल रहे हैं...बाकी यात्रियों के चेहरे एक से लग रहे हैं.....ऊंघते हुए.... लेकिन  मै अपनी खिड़की में बैठा हुआ हूँ  , और मेरी नज़रें खिड़की से दूर....बहूत दूर शायद   कुछ तलाश कर जाही हैं....क्या तलाश कर रही है..???
                                         
                                                                ......शायद कोई 'स्टेशन ' आने वाला है...गाडी बहुत धीमी हो चुकी है...रूठ जाने के अंदाज़ में.....ऑर पास ही 'आउटर सिग्नल' पर, फाटक के दूसरी तरफ कुछ लोग मूर्तिवत खड़े हैं,....देखने पर कुछ स्पष्ट नहीं दिख रहा...किसी इंतज़ार में खड़ी कुछ मनुष्य छायाएं मात्र, बिजली कौंधने पर दिख जा रही हैं .....शायद, इन्हें उस पार जाना है....

                                                                ...ऑर इस पार ....जिधर से ये लोग आ रहे हैं, कश्बे का कोई बाज़ार लगा हुआ है....कतार में लगे बल्बों का झुंड, यहाँ - वहां पीली - पीली रौशनी फेंक रहा है....नर मुंडों की भीड़ कम होती जा रही है....कुछ अपने दुकानों को समेटने में लगे हुए हैं....ऑर बाज़ार से वापस लौटती हुई, ये छायाएं मशीनी ज़िन्दगी ज़ीने के बाद , इस फाटक पर आकर मूर्तिवत खड़ी हो गई हैं....ठहर गई हैं...

                                                                 शायद, यह एक कटु सत्य है , जिसे हम मनुष्यों में सबसे ज्यादा देख ऑर समझ सकते हैं...सारी ज़िन्दगी हम चाहे कितना क्यूँ ना भागें, लेकिन एक उम्र के बाद हम ठहर से जाते हैं....निर्मल वर्मा ने भी कहीं लिखा है..."जब हम जवान होते हैं, हम समय के खिलाफ भागते हैं, लेकिन ज्यों - ज्यों बूढ़े होते जाते हैं, हम ठहर जाते हैं, समय भी ठहर जाता है, सिर्फ मृत्यु भागती है, हमारी तरफ I"

                                                               ...ऑर उस पार....जिधर इन्हें जाना है, चारों तरफ घना अँधेरा है...ऑर उस अँधेरे के बीच से गुज़रती हुई , कच्चे सड़क की एक संकड़ी पगडण्डी , जो सुदूर खेतों तक आरी - तिरछी जा कर, कहीं गुम हो गई हैं....बिजली कौंधने पर ये पगडण्डी, किसी विशालकाय अजगर की भाँती दिखता मालूम हो रहा है....

                                                               ...सोचता हूँ , कितनी अजीब बात है...एक तरफ बाज़ार है, जहाँ से पक्की सड़कें गुज़र रही हैं....शहर की सुविधाएं मौजूद हैं ...तो दूसरी तरफ एक कच्ची पगडण्डी .....जिनसे होकर लोग वापस अपने घरों की ओर लौट रहे हैं.....

                                                               ....सोचता हूँ, आखिर ऐसा क्यों होता है,. की ज़िन्दगी भर भागते रहने के पश्चात, एक समय के बाद, हम वापस अपने जड़ों की ओर लौटने लगते हैं....???

                                                                 ....बारिश की हल्की - हल्की बूँदें गिरने लगी हैं. और तेज़ हवाओं के साथ चेहरे पर बिखर रही हैं.....आहा! कितना शीतल एहसास...

                                                                  ....इस एहसास के साथ ही , अँधेरे से निकलता हुआ कोई चेहरा, धीरे - धीरे दिल की गहराइयों में उतरने लगा है...और मै , अपने हाथों में " गुनाहों का देवता " लिए, पन्ने पलट रहा हूँ ...इन पन्नों से, वो बाहर निकल आई है.....मुस्कुरा रही है...और मुस्कुराती ही रहेगी ....मुस्कुराना आदत है उसकी...नहीं - नहीं , मुस्कुराना पेशा है उसका....रिसेप्सनिस्ट है वो...यहीं से मुस्कुराने की बुरी आदत लगी है उसको ....मै जब उससे कहूँगा , " पालक, तुम इतना मुस्कुराती क्यूँ हो?? " मेरी ओर देखेगी, फिर मुस्कुराएगी और किसी बच्चे की तरह इठलाते हुए, प्यार भरे गुस्से से बोलेगी , " मेरा नाम पलक है, पालक नहीं " और फिर मुस्कुराने लगेगी ...

                                                                  ....वह ऊंचे 'हील' की सेंडल पहनती है, और उसके पास एक बड़ा - सा 'स्टाइलिश' बैग है... लोग कहते हैं, उस बैग में वो अपने आशिकों को छुपा कर रखती है....मै जब पूछता हूँ उससे की, " तुम मुझे इस बैग में क्यों नहीं छुपाती हो " वह फिर मुस्कुराती है...,और मझसे कहती है., " तुम मेरे आशिक नहीं हो, तुम पागल हो...पागल ..." और जोर से खिलखिलाकर हंसने लगती है , इतनी जोर से की आस - पास के सारे लोग हमे देखने लगते है....उसे इस बात का ज़रा भी ख्याल नहीं रहता....कोई उसे देख रहा है, या कई लोग उसे देख रहे है....लेकिन वह हँसेगी , और हंसती ही रहेगी .... वह जब ऐसे हंसती है तो आस - पास के कई लोग डर जाते हैं....जैसे, कभी ' भूखी पीढ़ी ' के लोग डर जाया करते थे....लेकिन मै डरता नहीं हूँ......उसके ऊपर लॉर्ड बायरन की तरह एक कविता लिखना चाहता हूँ ...

"" सितारों भरी चांदनी रात की तरह

सुन्दर है वह

उसका चेहरा और आँखें उसकी

संगम हैं धुप - छावं का

ऐसी कोमलता है इस प्रकाश में

नहीं मील सकती जो दोपहरी के आकाश में....""

                                                                           चलती हुई रेल के सफ़र में  आँखें बंद कर सोना भी एक कला है शायद....मै इस कला में माहिर नहीं हूँ ....लेकिन, नक़ल तो कर ही सकता हूँ.....
                                                                                                         ....................रा. रं . दरवेश

शनिवार, अगस्त 28, 2010

" मुक्ति प्रसंग "

..........

क्यूँ यह इक्षा होती है बार- बार
विभक्त हो जाऊ सैकड़ों टुकड़ों में
और एक ही समय , एक ही संग मौजूद रहूँ सैकड़ों देह के साथ
---जैसे कृष्ण ने किया कभी
काफ्का ने इक्षा की थी कभी....

क्या यह संभव है ?
या
"मुक्ति" अब भी एक संभावना है.......... रा. रं. दरवेश

शुक्रवार, जुलाई 23, 2010

गर्दिश के दिन

यादों के जंगल में अब जुगनुओं ने भी आना छोड़ दिया है ....

.....काफी दिनों बाद , कल की शाम एक बार फिर
                                      ...कोक वोदका के साथ ......

शुक्रवार, जुलाई 16, 2010

तुम मुझे क्षमा करो

बहुत अंधी थीं मेरी प्रार्थनाएँ।
मुस्कुराहटें मेरी विवश
किसी भी चंद्रमा के चतुर्दिक
उगा नहीं पाई आकाश-गंगा
लगातार फूल-

चंद्रमुखी!
बहुत अंधी थीं मेरी प्रार्थनाएँ।
मुस्कुराहटें मेरी विकल
नहीं कर पाई तय वे पद-चिन्ह।
मेरे प्रति तुम्हारी राग-अस्थिरता,
अपराध-आकांक्षा ने
विस्मय ने-जिन्हें,
काल के सीमाहीन मरुथल पर
सजाया था अकारण, उस दिन
अनाधार।
मेरी प्रार्थनाएँ तुम्हारे लिए
नहीं बन सकीं
गान,
मुझे क्षमा करो।

मैं एक सच्चाई थी
तुमने कभी मुझको अपने पास नहीं बुलाया।
उम्र की मखमली कालीनों पर हम साथ नहीं चले
हमने पाँवों से बहारों के कभी फूल नहीं कुचले
तुम रेगिस्तानों में भटकते रहे
उगाते रहे फफोले
मैं नदी डरती रही हर रात!
तुमने कभी मुझे कोई गीत गाने को नहीं कहा।
वक़्त के सरगम पर हमने नए राग नहीं बोए-काटे
गीत से जीवन के सूखे हुए सरोवर नहीं पाटे
हमारी आवाज़ से चमन तो क्या
काँपी नहीं वह डाल भी, जिस पर बैठे थे कभी!
तुमने ख़ामोशी को इर्द-गिर्द लपेट लिया
मैं लिपटी हुई सोई रही।
तुमने कभी मुझको अपने पास नहीं बुलाया
क्योंकि, मैं हरदम तुम्हारे साथ थी,
तुमने कभी मुझे कोई गीत गाने को नहीं कहा
क्योंकि हमारी ज़िन्दगी से बेहतर कोई संगीत न था,
(क्या है, जो हम यह संगीत कभी सुन न सके!)
मैं तुम्हारा कोई सपना नहीं थी, सच्चाई थी! ........... राजकमल चौधरी

सोमवार, जून 14, 2010

ज़िन्दगी एक मर्सिया ....

ज़िन्दगी जब ' कविता ' बन जाए .....मर्सिया बन जाती है .......मैं, मेरा मर्सिया खुद लिख जहा हूँ.......

बुधवार, जून 09, 2010

.......एक ऐतिहासिक त्रासदी


....भोपाल  गैस  कांड.......तारीखें...तारीखें .....और फिर  पच्चीस  बरस  के  बाद   सुनवाई .........हमारे  इतिहास  की  सबसे  बड़ी  त्रासदी  है ., जो  वर्तमान  और  भविष्य   दोनों  को  ही  अनसुलझे  ' अतीत '  की  तरह  धीरे - धीरे  ख़ामोश  कर  देना  चाहती  है .....साज़िश  की  दुर्गन्ध.....बहुत  दूर  जाएगी ......

शुक्रवार, जून 04, 2010

उफ्फ ! ये औरतो की कमीज़ कहाँ से खुलती है ....? ....हज़ारों बटन , लाखों  हुक !!!

गुरुवार, जून 03, 2010

आत्मगाथा

बुशर्ट के फट जाने पर माँ सिल दिया करती थी ....अब दर्जी सिल दिया करता है .....लेकिन ज़िन्दगी के सपने चिंदी - चिंदी बिखरते जा रहे हैं ...ज़िन्दगी की नज्मों के उघडती हुई धागों को भला कौन दर्जी सिल देगा ........  

बुधवार, जून 02, 2010

पत्रकारिता की नई तस्वीर



पत्रकारिता की नई  तस्वीर देखने को मिल रही है ....नए- पुराने, खुद को 'journalist'  कहने  वाले लोग अपने  हाथों में माइक  लिए राजनितिक गलियारों में घूम रहे हैं ....राजधानी में खड़े हुए राजनेताओं के सड़े हुए बदरंग चेहरों की तस्वीरें  और  उनके उगले हुए हज़ारों बरस पुराने वक्तब्य बटोरते फिर रहे हैं ------- जाति, धर्म , शोषण , आरक्षण .....
वरयाम सिंह की एक कविता है......

''''आस्थाओं के उस दौर  में 
   विश्वास था हमें 
   जो आगे चल रहा है ठीक ले जा रहा होगा .

   ............
   ...........
  
 आज हम जहाँ पहुंचे 
   विश्वास नहीं होता हमें यही रास्ता यहाँ लाया है,
   वही चेहरे हैं, वही चीजें है  और वही सब कुछ
   सिर्फ अप्रासंगिक हो गए लगते हैं कुछ शब्द 
   जैसे शोषण , अन्याय , असमानता, .........,,,,

शुक्रवार, मई 07, 2010

जीवन और साहित्य

“….और , जीवन  और  साहित्य  में  ताश  के  एक  ही  पत्ते  खेलने  से  पागलपन  ना  मिले , पीड़ाएँ  ना  मिलें , अकाल  मृत्यु  ना  मिले , तो  और  क्या  मिलेगा ??”
                                        ……….निराला  

इच्छा


मैं जानती  हूँ   की  तुम्हे  इच्छा  हो  रही  है ,
मैं   जानती  हूँ   की  मुझे  भी  इच्छा  हो  रही  है ,
किन्तु ,
तुम्हें  पता  नहीं ,
सिर्फ  मुझे  पता  है  की  मैं  मासिक  धर्म  की 
रक्त  यंत्रणा  में  हूँ  .,,………
                                           .......….भूखी  पीढ़ी  की  कविता 

ख़ामोशी

मुझे पसंद  हैं 
    तुम्हारा  एहसास
    तुम्हारी खामोशी
    तुम्हारे जज़्बात
    तुम्हारा जिस्म   
     ...... पसीने की बू 

फिर, नापसंद क्या है ?
"रौशनी" !

प्लीज़, बत्ती बुझा दो 
दिल की आग धुआं होने को बाकी  है.....
                                                 ..... आर. आर. दरवेश  

गुरुवार, अप्रैल 08, 2010

http://lh3.googleusercontent.com/_OFYGf44IBns/S4UXDBg6dEI/AAAAAAAAAHM/3f9shtxf4vk/Nirmal-Verma_7757.jpg 
""जब कभी निर्मल वर्मा को पढता हूँ, आभास होता है .......यज्ञ वेदी पर बैठा हूँ...........प्रज्वलित हवन की  ऊष्मा तील , जो , घी के पड़ते ही धीरे - धीरे अग्नि की तेज़ लपटों में तब्दील होती जा रही है.....पवित्र होती जा रही है .........मन्त्रों का शोर बढ़ता ही जा रहा है.....अन्दर की पवित्रता बाहर की उष्माओं  में घुलकर कहीं ले जा रही है......किसी अनंत की ओर.....आँखें बंद हो चुकी हैं और कहीं किसी कोने से एक आवाज़ आती है -- आह ! आज कितना कुछ पा लिया "".....
        साजिश
अधजली  लाश  नोचकर  
खाते  रहना  श्रेयस्कर  है 
जीवित  पडोसिओं  को  खा  जाने  से 
हम  लोगों  को  अब  शामिल  नहीं  रहना  है 
इस  धरती  से  आदमी  को  हमेशा  के  लिए  ख़त्म  कर  देने  की 
साजिश  में ......................
                                        ......राजकमल  चौधरी 

बुधवार, मार्च 17, 2010

सुहानी रात

सुहानी  रात का मंज़र बीता जा रहा है .......रात की सपनीली ज़वानी का नशा , सुबह  की चमकीली रौशनी में टूट कर बिखर जाने को मजबूर है .......पास ही किसी ऑटो में बज रहे गाने की आवाज़ दूर तक फैलती  जा  रही है ......"सुहानी रात ढल चुकी ..ना जाने कब आओगे ".......मधुबाला की मदहोश आँखों का इंतज़ार दिल्ली की वीरान सडकों  पर पसरने लगा है.....और आने वाली सुबह  रात की वक्षों को धीरे धीरे सहला रही है.......    

बुधवार, मार्च 10, 2010

उदास चेहरे

उदासी  का अपना एक परिवेश है - - - - -कालचक्र है - - - - - अपनी स्थितियाँ है - -  - - "उदास"  शब्द  कभी उदासी की जगह नहीं ले सकती  है - - -