एक अंतहीन मुक्तिगाथा...
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शुक्रवार, मई 07, 2010
जीवन और साहित्य
“….और , जीवन और साहित्य में ताश के एक ही पत्ते खेलने से पागलपन ना मिले , पीड़ाएँ ना मिलें , अकाल मृत्यु ना मिले , तो और क्या मिलेगा ??”
……….निराला
इच्छा
मैं जानती हूँ की तुम्हे इच्छा हो रही है
,
मैं जानती हूँ की मुझे भी इच्छा हो रही है
,
किन्तु ,
तुम्हें पता नहीं ,
सिर्फ मुझे पता है की मैं मासिक धर्म की
–
रक्त यंत्रणा में हूँ .,,………
.
.....
.….
भूखी पीढ़ी की कविता
ख़ामोशी
मुझे पसंद हैं
तुम्हारा एहसास
तुम्हारी खामोशी
तुम्हारे जज़्बात
तुम्हारा जिस्म
...... पसीने की बू
फिर, नापसंद क्या है ?
"रौशनी" !
प्लीज़, बत्ती बुझा दो
दिल की आग धुआं होने को बाकी है.....
..... आर. आर. दरवेश
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