बहुत अंधी थीं मेरी प्रार्थनाएँ।
मुस्कुराहटें मेरी विवश
किसी भी चंद्रमा के चतुर्दिक
उगा नहीं पाई आकाश-गंगा
लगातार फूल-
चंद्रमुखी!
बहुत अंधी थीं मेरी प्रार्थनाएँ।
मुस्कुराहटें मेरी विकल
नहीं कर पाई तय वे पद-चिन्ह।
मेरे प्रति तुम्हारी राग-अस्थिरता,
अपराध-आकांक्षा ने
विस्मय ने-जिन्हें,
काल के सीमाहीन मरुथल पर
सजाया था अकारण, उस दिन
अनाधार।
मेरी प्रार्थनाएँ तुम्हारे लिए
नहीं बन सकीं
गान,
मुझे क्षमा करो।
मैं एक सच्चाई थी
तुमने कभी मुझको अपने पास नहीं बुलाया।
उम्र की मखमली कालीनों पर हम साथ नहीं चले
हमने पाँवों से बहारों के कभी फूल नहीं कुचले
तुम रेगिस्तानों में भटकते रहे
उगाते रहे फफोले
मैं नदी डरती रही हर रात!
तुमने कभी मुझे कोई गीत गाने को नहीं कहा।
वक़्त के सरगम पर हमने नए राग नहीं बोए-काटे
गीत से जीवन के सूखे हुए सरोवर नहीं पाटे
हमारी आवाज़ से चमन तो क्या
काँपी नहीं वह डाल भी, जिस पर बैठे थे कभी!
तुमने ख़ामोशी को इर्द-गिर्द लपेट लिया
मैं लिपटी हुई सोई रही।
तुमने कभी मुझको अपने पास नहीं बुलाया
क्योंकि, मैं हरदम तुम्हारे साथ थी,
तुमने कभी मुझे कोई गीत गाने को नहीं कहा
क्योंकि हमारी ज़िन्दगी से बेहतर कोई संगीत न था,
(क्या है, जो हम यह संगीत कभी सुन न सके!)
मैं तुम्हारा कोई सपना नहीं थी, सच्चाई थी! ........... राजकमल चौधरी
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शुक्रवार, जुलाई 16, 2010
सोमवार, जून 14, 2010
ज़िन्दगी एक मर्सिया ....
ज़िन्दगी जब ' कविता ' बन जाए .....मर्सिया बन जाती है .......मैं, मेरा मर्सिया खुद लिख जहा हूँ.......
बुधवार, जून 09, 2010
.......एक ऐतिहासिक त्रासदी
....भोपाल गैस कांड.......तारीखें...तारीखें .....और फिर पच्चीस बरस के बाद सुनवाई .........हमारे इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी है ., जो वर्तमान और भविष्य दोनों को ही अनसुलझे ' अतीत ' की तरह धीरे - धीरे ख़ामोश कर देना चाहती है .....साज़िश की दुर्गन्ध.....बहुत दूर जाएगी ......
शुक्रवार, जून 04, 2010
गुरुवार, जून 03, 2010
आत्मगाथा
बुशर्ट के फट जाने पर माँ सिल दिया करती थी ....अब दर्जी सिल दिया करता है .....लेकिन ज़िन्दगी के सपने चिंदी - चिंदी बिखरते जा रहे हैं ...ज़िन्दगी की नज्मों के उघडती हुई धागों को भला कौन दर्जी सिल देगा ........
बुधवार, जून 02, 2010
पत्रकारिता की नई तस्वीर
पत्रकारिता की नई तस्वीर देखने को मिल रही है ....नए- पुराने, खुद को 'journalist' कहने वाले लोग अपने हाथों में माइक लिए राजनितिक गलियारों में घूम रहे हैं ....राजधानी में खड़े हुए राजनेताओं के सड़े हुए बदरंग चेहरों की तस्वीरें और उनके उगले हुए हज़ारों बरस पुराने वक्तब्य बटोरते फिर रहे हैं ------- जाति, धर्म , शोषण , आरक्षण .....
वरयाम सिंह की एक कविता है......
''''आस्थाओं के उस दौर में
विश्वास था हमें
जो आगे चल रहा है ठीक ले जा रहा होगा .
............
...........
आज हम जहाँ पहुंचे
विश्वास नहीं होता हमें यही रास्ता यहाँ लाया है,
वही चेहरे हैं, वही चीजें है और वही सब कुछ
सिर्फ अप्रासंगिक हो गए लगते हैं कुछ शब्द
जैसे शोषण , अन्याय , असमानता, .........,,,,
शुक्रवार, मई 07, 2010
जीवन और साहित्य
“….और , जीवन और साहित्य में ताश के एक ही पत्ते खेलने से पागलपन ना मिले , पीड़ाएँ ना मिलें , अकाल मृत्यु ना मिले , तो और क्या मिलेगा ??”
……….निराला
इच्छा
मैं जानती हूँ की तुम्हे इच्छा हो रही है ,
मैं जानती हूँ की मुझे भी इच्छा हो रही है ,
किन्तु ,
तुम्हें पता नहीं ,
सिर्फ मुझे पता है की मैं मासिक धर्म की –
रक्त यंत्रणा में हूँ .,,………
.......….भूखी पीढ़ी की कविता
ख़ामोशी
मुझे पसंद हैं
तुम्हारा एहसास
तुम्हारी खामोशी
तुम्हारे जज़्बात
तुम्हारा जिस्म
...... पसीने की बू
फिर, नापसंद क्या है ?
"रौशनी" !
प्लीज़, बत्ती बुझा दो
दिल की आग धुआं होने को बाकी है.....
..... आर. आर. दरवेश
गुरुवार, अप्रैल 08, 2010

""जब कभी निर्मल वर्मा को पढता हूँ, आभास होता है .......यज्ञ वेदी पर बैठा हूँ...........प्रज्व
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