""जब कभी निर्मल वर्मा को पढता हूँ, आभास होता है .......यज्ञ वेदी पर बैठा हूँ...........प्रज्वलित हवन की ऊष्मा तील , जो , घी के पड़ते ही धीरे - धीरे अग्नि की तेज़ लपटों में तब्दील होती जा रही है.....पवित्र होती जा रही है .........मन्त्रों का शोर बढ़ता ही जा रहा है.....अन्दर की पवित्रता बाहर की उष्माओं में घुलकर कहीं ले जा रही है......किसी अनंत की ओर.....आँखें बंद हो चुकी हैं और कहीं किसी कोने से एक आवाज़ आती है -- आह ! आज कितना कुछ पा लिया "".....
सुहानी रात का मंज़र बीता जा रहा है .......रात की सपनीली ज़वानी का नशा , सुबह की चमकीली रौशनी में टूट कर बिखर जाने को मजबूर है .......पास ही किसी ऑटो में बज रहे गाने की आवाज़ दूर तक फैलती जा रही है ......"सुहानी रात ढल चुकी ..ना जाने कब आओगे ".......मधुबाला की मदहोश आँखों का इंतज़ार दिल्ली की वीरान सडकों पर पसरने लगा है.....और आने वाली सुबह रात की वक्षों को धीरे धीरे सहला रही है.......